Editor Posts footer ads

भारत के सन्दर्भ में नियोजन और सतत पोषनीय विकास Planning and Sustainable Development in the Indian Context Class 12 Geography Chapter – 6 notes in HINDI


भारत के सन्दर्भ में नियोजन और सतत पोषनीय विकास

नियोजन क्या है ?

  • 'नियोजन’ Planning शब्द आपके लिए नया नहीं है क्योंकि यह हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाले शब्दों का एक अंग है। 
  • आपने इस शब्द का प्रयोग अपनी परीक्षा किसी पर्वतीय स्थल पर जाने के लिए की गई तैयारी के संदर्भ में किया होगा। 
  • इसमें सोच-विचार की प्रक्रिया, कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु गतिविधियों का क्रियान्वयन सम्मिलित है। 
  • यह एक शब्द व्यापक है, परंतु इस अध्याय में इसका प्रयोग आर्थिक विकास की प्रक्रिया के संदर्भ में किया गया है। 



'नियोजन’ Planning


  • किसी कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए तय की गयी योजना ही नियोजन है सोच-विचार की प्रक्रिया
  • कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना 
  • उद्देश्य तय करना  
  • उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु गतिविधियों का क्रियान्वयन सम्मिलित है। 



नियोजन के दो उपगमन

1. खंडीय (Sectoral) नियोजन 

  • कृषि , ऊर्जा निर्माण , उद्योग ,सिंचाई ,परिवहन , संचार , विनिर्माण , सेवा का विकास  


2. प्रादेशिक नियोजन 

  • प्रादेशिक असंतुलन को कम करने के लिए बनाई जाने वाली योजना 



योजना आयोग /नीति  आयोग

  • स्वतत्रंता के बाद भारत में केंद्रीकृत योजनाओं को अपनाया फिर धीरे-धीरे विकेंद्रीकृत बहुस्तरीय योजनाओं की शुरुआत की गयी 
  • पहले केंद्र,राज्य तथा जिला स्तर पर योजनाओं को तैयार करना योजना आयोग का था  परंतु जनवरी 1, 2015 को योजना आयोग का स्थान नीति आयोग ने ले लिया।
  • इसका कार्य केंद्रीय तथा राज्य सरकारों को युक्तिगत तथा तकनीकी सलाह देने का है  आर्थिक नीति निर्माण में राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित करता है 
  • भारत के  करने के उद्देश्य से नीति आयोग स्थापित किया गया है।


लक्ष्य क्षेत्र नियोजन

  • ऐसे क्षेत्र जो आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं उन क्षेत्रों में नियोजन प्रक्रम को विशेष ध्यान देना चाहिए। 
  • किसी क्षेत्र का आर्थिक विकास उसके संसाधनों पर आधारित होता है। लेकिन कभी-कभी संसाधनों से भरपूर क्षेत्र भी पिछड़े रह जाते हैं।
  • आर्थिक विकास के लिए संसाधनों के साथ-साथ तकनीक और निवेश की आवश्यकता होती है। 
  • देश में नियोजन के अनुभवों से, यह महसूस किया गया है कि आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन प्रबलित हो रहा था।
  • क्षेत्रीय एवं सामाजिक विषमताओं की प्रबलता को काबू में रखने के लिए योजना आयोग ने 'लक्ष्य क्षेत्र' तथा 'लक्ष्य-समूह' योजना उपागमों को प्रस्तुत किया है।


'लक्ष्य क्षेत्र के लिए निम्न प्रकार के क्षेत्रों को लिया जाता है

1. बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 

2. सूखा संभावित क्षेत्र 

3. पर्वतीय क्षेत्र 

4. अन्य पिछड़े हुए क्षेत्र


निम्न क्षेत्रों में विकास कार्यक्रम 

1. क्षेत्र का चयन 

2. क्षेत्र की समस्या को समझना

3. लक्ष्य का निर्धारण 

4. उद्देश्य का निर्धारण 

5. योजना निर्माण 

6 योजना क्रियान्वयन 

7. मूल्यांकन  


'लक्ष्य क्षेत्र के लिए लाये गए कार्यक्रम के उदाहरण  

1. कमान नियंत्रित क्षेत्र विकास कार्यक्रम

2. सूखाग्रस्त क्षेत्र विकास कार्यक्रम

3. पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम

4. लघु कृषक विकास संस्था (SFDA)

5. सीमांत किसान विकास संस्था (MFDA)

6. आठवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्रों तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों, जनजातीय एवं पिछड़े क्षेत्रों को विकसित करने के लिए योजना



पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम 


  • पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रमों को पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में प्रारंभ किया गया। 
  • इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश के सारे पर्वतीय जिले (वर्तमान उत्तराखण्ड), मिकिर पहाड़ी और असम की उत्तरी कछार की पहाड़ियाँ, 
  • पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला और तमिलनाडु के नीलगिरी आदि को मिलाकर कुल 15 जिले शामिल हैं।
  • 1981 में 'पिछड़े क्षेत्रों पर राष्ट्रीय समिति ने उन सभी पर्वतीय क्षेत्रों को पिछड़े पर्वतीय क्षेत्रों में शामिल करने की सिफ़ारिश की जिनकी ऊँचाई 600 मीटर से अधिक है और जिनमें जनजातीय उप-योजना लागू नहीं है।


पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए बनी राष्ट्रीय समिति ने निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर पहाड़ी क्षेत्रों में विकास के लिए सुझाव दिए 

  • सभी लोग लाभान्वित हों केवल प्रभावशाली व्यक्ति ही नहीं 
  • स्थानीय संसाधनों और प्रतिभाओं का विकास
  • अर्थव्यवस्था को निवेश-उन्मुखी बनाना
  • अंतः प्रादेशिक व्यापार में पिछड़े क्षेत्रों का शोषण न हो
  • पिछड़े क्षेत्रों की बाज़ार व्यवस्था में सुधार करके श्रमिकों को लाभ पहुँचाना
  • पारिस्थिकीय संतुलन बनाए रखना। 



हाड़ी क्षेत्र के विकास की विस्तृत योजनाएँ 

  • इनके स्थलाकृतिक, पारिस्थिकीय, सामाजिक तथा आर्थिक दशाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई। 
  • ये कार्यक्रम पहाड़ी क्षेत्रों में बागवानी का विकास, रोपण कृषि, पशुपालन, मुर्गी पालन, वानिकी, लघु तथा ग्रामीण उद्योगों का विकास करने के लिए स्थानीय संसाधनों को उपयोग में लाने के उद्देश्य से बनाए गए।



सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम 

  • इस कार्यक्रम की शुरुआत चौथी पंचवर्षीय योजना में हुई। 
  • इसका उद्देश्य सूखा संभावी क्षेत्रों में लोगों को रोज़गार उपलब्ध करवाना और सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए उत्पादन के साधनों को विकसित करना था। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में इसके कार्यक्षेत्र को और विस्तृत किया गया। 
  • शुरू में ऐसे सिविल निर्माण कार्यों पर बल दिया गया जिनमें अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है। परंतु बाद में इसमें सिंचाई परियोजनाओं, भूमि विकास कार्यक्रमों, वनीकरण, चरागाह विकास और आधारभूत ग्रामीण अवसंरचना जैसे विद्युत, सड़कों, बाज़ार, ऋण सुविधाओं और सेवाओं पर जोर दिया।
  • जब पिछड़े क्षेत्रों के विकास की राष्ट्रीय समिति के द्वारा  इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन की समीक्षा की गयी तो यह पाया गया कि यह कार्यक्रम मुख्यतः कृषि तथा इससे संबद्ध सेक्टरों के विकास तक ही सीमित है 
  • जनसंख्या वृद्धि के कारण लोग कृषि के लिए सीमांत भूमि का उपयोग करने के लिए बाध्य हैं जिससे पारिस्थितिकीय निम्नीकरण हो रहा है। 
  • अतः सूखा संभावी क्षेत्रों में वैकल्पिक रोजगार अवसर पैदा करने की आवश्यकता है। 



अन्य रणनीतियां

  • जल-संभर विकास कार्यक्रम अपनाना 
  • सूखा संभावी क्षेत्रों के विकास की रणनीति में जल, मिट्टी, पौधों, मानव तथा पशु जनसंख्या के बीच पारिस्थितिकीय संतुलन, पुनःस्थापन पर मुख्य रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए।
  • 1967 में योजना आयोग ने देश में 67 जिलों (पूर्ण या आशिक) की पहचान सूखा संभावी जिलों के रूप में की।     
  • भारत में सूखा संभावी क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र, आंध्र प्रदेश के रायलसीमा और तेलंगाना पठार, कर्नाटक पठार और तमिलनाडु की उच्च भूमि तथा आंतरिक भाग के शुष्क और अर्ध-शुष्क भागों में फैले हुए हैं।



केस अध्ययन भरमौर क्षेत्र में समन्वित जनजातीय विकास कार्यक्रम 

भरमौर जनजातीय क्षेत्र हिमाचल प्रदेश  ( चंबा जिला ) दो तहसील

1. भरमौर

2. होली

भरमौर क्षेत्र का समाज

  • भरमौर क्षेत्र में गद्दी जनजाति रहती है यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ था
  • सरकार ने इस क्षेत्र के विकास के लिए 1975 में एक योजना चलाई इस क्षेत्र में 'गद्दी' जनजातीय समुदाय रहता है।
  • इस समुदाय की हिमालय क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान है क्योंकि गद्दी लोग ऋतु-प्रवास करते हैं तथा गद्दीयाली भाषा में बात करते हैं।
  • भरमौर जनजातीय क्षेत्र में जलवायु कठोर है यहाँ आधारभूत संसाधन कम हैं इन कारकों ने इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और समाज को प्रभावित किया है।
  • 2011 की जनगणना के अनुसार, भरमौर उपमंडल को जनसंख्या 39,113 थी अर्थात् 21 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर।
  • यह हिमाचल प्रदेश के आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है।
  • ऐतिहासिक तौर पर, गद्दी जनजाति ने भौगोलिक और आर्थिक अलगाव का अनुभव किया है और सामाजिक-आर्थिक विकास से वंचित रही है।
  • इन लोगों की आर्थिक क्रियाएँ कृषि ,भेड़ और बकरी पालन हैं।


विकास की प्रक्रिया

  • भरमौर जनजातीय क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया 1970 के दशक में शुरू हुई जब गद्दी लोगों को अनुसूचित जनजातियों ( ST ) में शामिल किया गया। 
  • पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत जनजातीय उप-योजना प्रारंभ हुई 
  • भरमौर जनजातीय क्षेत्र विकास योजना का उद्देश्य गद्दियों के जीवन स्तर में सुधार करना 
  • भरमौर तथा हिमाचल प्रदेश के अन्य भागों के बीच में विकास के स्तर में अंतर को कम करना है। 
  • परिवहन तथा संचार, कृषि और इससे संबंधित क्रियाओं तथा सामाजिक व सामुदायिक सेवाओं के विकास को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई। 


विकास उपयोजना के लाभ

  • इस क्षेत्र में जनजातीय समन्वित विकास उपयोजना का सबसे महत्वपूर्ण योगदान विद्यालयों, जन स्वास्थ्य सुविधाओं, पेयजल, सड़कों, संचार और विद्युत के रूप में अवसंरचना विकास है। 
  • जनजातीय समन्वित विकास उपयोजना लागू होने से हुए सामाजिक लाभों में साक्षरता दर में तेजी से वृद्धि, लिंग अनुपात में सुधार और बाल-विवाह में कमी शामिल हैं। 
  • इस क्षेत्र में स्त्री साक्षरता दर 1971 में 1.88 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 65 प्रतिशत हो गई। 
  • स्त्री और पुरुष साक्षरता दर में अंतर अर्थात् साक्षरता में लिंग असमानता भी कम हुई है। 
  • गद्दियों की परंपरागत अर्थव्यवस्था जीवन निर्वाह कृषि व पशुचारण पर आधारित थी जिसमें खाद्यान्नों और पशुओं के उत्पादन पर बल दिया जाता था। 
  • लेकिन  20वीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों के दौरान, भरमौर क्षेत्र में दालों और अन्य नकदी फसलों की खेती में बढ़ोतरी हुई है। यहाँ खेती अभी भी परंपरागत तकनीकों से की जाती है। 
  • इस क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में पशुचारण के घटते महत्व को इस बात से आँका जा सकता है कि आज कुल पारिवारिक इकाइयों का दसवाँ भाग ही ऋतु प्रवास करता है। 
  • परंतु गद्दी जनजाति आज भी बहुत गतिशील है क्योंकि इनको एक बड़ी संख्या शरद् ऋतु में कृषि और मजदूरी करके आजीविका कमाने के लिए कांगड़ा और आसपास के क्षेत्रों में प्रवास करती है।


सतत पोषणीय विकास 

  • सतत पोषणीय विकास से अभिप्राय विकास की उस विधि से है जिसमे हम वर्तमान समय में संसाधनों का उपयोग सोच समझ कर करें ताकि आने वाली पीढ़ियों को भी वह संसाधन मिल सकें 
  • साधारणतया 'विकास' शब्द से अभिप्राय समाज विशेष की स्थिति और उसके द्वारा अनुभव किए गए परिवर्तन की प्रक्रिया से होता है। 
  • मानव इतिहास के लंबे अंतराल में समाज और उसके भौतिक पर्यावरण की निरंतर अंतः क्रियाएँ समाज की स्थिति का निर्धारण करती हैं। 
  • मानव और पर्यावरण अंतः क्रिया की प्रक्रियाएँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि समाज में किस प्रकार की प्रौद्योगिकी विकसित की है 
  • प्रौद्योगिकी और संस्थाओं ने मानव पर्यावरण अंतः क्रिया को गति प्रदान की है तो इससे पैदा हुए संवेग ने प्रौद्योगिकी का स्तर उँचा उठाया है और अनेक संस्थाओं का निर्माण और रूपांतरण किया है।


पर्यावरण संबधी मुद्दों की प्रमुख चिंता 

  • 1960 के दशक के अंत में पश्चिमी दुनिया में पर्यावरण संबधी मुद्दों पर बढ़ती जागरूकता की सामान्य वृद्धि के कारण सतत पोषणीय धारणा का विकास हुआ।
  • इससे पर्यावरण पर औद्योगिक विकास के अनापेक्षित प्रभावों के विषय में लोगों की चिंता प्रकट होती थी।
  • 1968 में प्रकाशित एहरलिच की पुस्तक 'द पापुलेशन बम' और 1972 में मीडोस और अन्य द्वारा लिखी गई पुस्तक 'द लिमिट टू ग्रोथ' के प्रकाशन ने इस विषय पर लोगों और विशेषकर पर्यावरणविदों की चिंता और भी गहरी कर दी। 
  • इस घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विकास के एक नए माडल जिसे 'सतत पोषणीय विकास' कहा जाता है की शुरुआत हुई। 
  • पर्यावरणीय मुद्दों पर विश्व समुदाय की बढ़ती चिंता को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने 'विश्व पर्यावरण और विकास आयोग' (WECD) की स्थापना की जिसके प्रमुख नार्वे की प्रधान मंत्री गरो हरलेम ब्रटलैंड थीं। 
  • इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 'अवर कॉमन फ्यूचर' (जिसे ब्रटलैंड रिपोर्ट भी कहते हैं) 1987 में प्रस्तुत की WECD ने सतत पोषणीय विकास की सीधी-सरल और वृहद् स्तर पर प्रयुक्त परिभाषा प्रस्तुत की। 
  • इस रिपोर्ट के अनुसार सतत पोषणीय विकास का अर्थ है 'एक ऐसा विकास जिसमें भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकता पूर्ति को प्रभावित किए बिना वर्तमान पीढ़ी द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना। 



इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र 

  • इंदिरा गांधी नहर को पहले राजस्थान नहर के नाम से जाना जाता था यह भारत में सबसे बड़े नहर तंत्रों में से एक है। 
  • इस नहर परियोजना की संकल्पना 1948 में कँवर सेन द्वारा राखी गयी परियोजना 31 मार्च 1958 को प्रारंभ हुई। 
  • यह नहर पंजाब में हरिके बाँध से निकलती है और राजस्थान के थार मरुस्थल (मरुस्थली) पाकिस्तान सीमा के समानांतर 40 कि.मी. की औसत दूरी पर बहती है। 
  • इस नहर तंत्र की कुल नियोजित लबाई 9060 कि. मी. है 
  • यह 19.63 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य कमान क्षेत्र में सिचाई की सुविधा प्रदान करेगी। 



नहर का निर्माण कार्य दो चरणों में पूरा किया गया है। 

चरण -1  

  • इसका कमान क्षेत्र गंगानगर, हनुमानगढ़ और बीकानेर जिले के उत्तरी भाग में पड़ता है। इस चरण के कमान क्षेत्र का भूतल थोड़ा ऊबड़ खाबड़ है और इसका कृषि योग्य कमान क्षेत्र 5.53 लाख हेक्टेयर है। 


चरण -।। 

  • इसका कमान क्षेत्र बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर जोधपुर और चुरू जिलों में 14.10 लाख हेक्टेयर कृषियोग्य भूमि पर फैला हुआ है। 
  • इसमें स्थानांतरित बालू टिब्बे  वाला मरुस्थल भी सम्मिलित है। 
  • जहाँ स्थानांतरी बालू टिब्बे पाए जाते हैं और ग्रीष्म ऋतु में तापमान 50 सेल्सियस तक पहुंच जाता है।


नहर की विशेषताए

  • चरण-I के कमान क्षेत्र में सिंचाई की शुरुआत 1960 के दशक के आरभ में हुई जबकि चरण-II कमान क्षेत्र में 1980 के दशक के मध्य में सिंचाई आरंभ हुई।
  • नहर सिंचाई के प्रसार ने इस शुष्क क्षेत्र की पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था और समाज को रूपांततरित कर दिया है।
  • इससे इस क्षेत्र को पर्यावरणीय परिस्थितियों पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़े हैं।
  • लंबी अवधि तक मृदा नमी उपलब्ध होने और कमान क्षेत्र विकास के तहत शुरू किए गए वनीकरण और चरागाह विकास कार्यक्रमों से यहाँ भूमि हरी भरी हो गई है।
  • इससे वायु अपरदन और नहरी तंत्र में बालू निक्षेप की प्रक्रियाएँ भी धीमी पड़ गई है।
  • सघन सिंचाई और जल के अत्यधिक प्रयोग से जल भराव और मृदा लवणता की दोहरी पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गई।
  • नहरी सिंचाई के प्रसार से इस प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष रूप में रूपांतरित हो गई है। इस क्षेत्र में सफलतापूर्वक फ़सलें उगाने के लिए मृदा नमी सबसे महत्वपूर्ण सीमाकारी कारक रहा है।
  • परंतु नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र के विस्तार से बोये गये क्षेत्र में विस्तार हुआ है और फ़सलों की सघनता में वृद्धि हुई है।
  • यहाँ की पारंपरिक फ़सलों, चना, बाजरा और ग्वार का स्थान गेहूँ, कपास, मूँगफली और चावल ने ले लिया है।


सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले उपाय 

  • बहुत से विद्वानों ने  इंदिरा गांधी नहर परियोजना की पारिस्थितिकीय पोषणता पर प्रश्न उठाए हैं। 
  • पिछले चार दशक में, जिस तरह से इस क्षेत्र में विकास हुआ है और इससे जिस तरह भौतिक पर्यावरण का निम्नीकरण हुआ है, ने विद्वानों के इस दृष्टिकोण को काफ़ी हद तक सही ठहराया भी। 
  • इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से पारिस्थितिकीय सतत पोषणता पर बल देना होगा। 


इसलिए, इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित सात उपायों में से पाँच उपाय पारिस्थतिकीय संतुलन पुनःस्थापित करने पर बल देते हैं। 


(i) जल प्रबंधन नीति का कठोरता से कार्यान्वयन करना इस नहर परियोजना के चरण 1 में कमान क्षेत्र में फ़सल रक्षण सिंचाई और चरण 2 में फ़सल उगाने और चरागाह विकास के लिए विस्तारित सिंचाई का प्रावधान है। 

(ii) जल सघन फ़सलों को नहीं बोया जाना चाहिए ,इसका पालन करते हुए किसानों का बागाती कृषि के अंतर्गत खट्टे फलों की खेती करनी चाहिए।

(iii)  कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम जैसे नालों को पक्का करना, भूमि विकास तथा समतलन और वारबंदी (ओसरा) पद्धति (निकास के कमान क्षेत्र में नहर के जल का समान वितरण) प्रभावी रूप से कार्यान्वित की जाए ताकि बहते जल की क्षति मार्ग में कम हो सके। 

(iv)  इस प्रकार जलाक्रांत एवं लवण से प्रभावित भूमि का पुनरूद्धार किया जाएगा। 

(v) वनीकरण, वृक्षों का रक्षण मेखला (shelterbelt) का निर्माण और चरागाह विकास। 


इस क्षेत्र, विशेषकर चरण-2 के भंगुर पर्यावरण, में पारितंत्र विकास (eco- development) के लिए अति आवश्यक है। 

(vi) इस प्रदेश में सामाजिक सतत पोषणता का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है यदि निर्धन आर्थिक स्थिति वाले भूआवंटियों को कृषि के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्तीय और संस्थागत सहायता उपलब्ध करवाई जाए। 

(vii) मात्र कृषि और पशुपालन के विकास से इस क्षेत्रों में आर्थिक सतत पोषणीय विकास की अवधारणा को साकार नहीं किया जा सकता। 


कृषि और इससे संबंधित क्रियाकलापों को अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टरों के साथ विकसित करना पड़ेगा। इनसे इस क्षेत्र में आर्थिक विविधीकरण होगा तथा मूल आबादी गाँवों, कृषि-सेवा केंद्रों (सुविधा गाँवों) और विपणन केंद्रों (मंडी कस्बों) के बीच प्रकार्यात्मक संबंध स्थापित होगा i 


Watch Chapter Video




एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Ok, Go it!